Thursday, 1 June 2017

ગઝલ

हर तरफ़ हर जग़ह बेशुमार आदमी,....

हर तरफ़ हर जग़ह बेशुमार आदमी,
फिर भी तन्हाईयों का शिकार आदमी ।.....

सुबहों से शाम तक बोझ ढोता हुआ,
अपनी ही लाश पर खुद मज़ार आदमी ।......

हर तरफ भागते दौड़ते रास्ते,

हर तरफ आदमी का िशकार आदमी ।.....

रोज जीता हुआ रोज मरता हुआ,
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी ।.....

ज़िन्दगी का मुकद्दर सफ़र-दर-सफ़र,
आिख़री सांस तक बेक़रार आदमी । ....

=== निदा फाजली

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