शकील क़ादरी
🌷ग़ज़ल🌷
काँटा जो लगा है वो निकल भी नहीं सकता
है एसी ज़मीं जिस पे मैं चल भी नहीं सकता
करता है अता जो मेरे अश्आर को ख़ुश्बू
सीने में तेरे दर्द वो पल भी नहीं सकता
शाइर हैं ख़रीदार हैं बाज़ारे - ग़ज़ल है
इस भीड में वो कौन है चल भी नहीं सकता
दिल मौम किसी दिन था मेरा बज़्मे-अदब में
अब हो गया पत्थर जो पिघल भी नहीं सकता
ज़रदार के आँगन में ग़ज़ल नाच रही है
अफ़्सोस ये मंज़र मैं बदल भी नहीं सकता
इस इश्क़ की मंज़िल पे जहाँ मैं हूँ वहाँ पर
गिरते हुए इन्सान संभल भी नहीं सकता
खा लेता है अहेसान के दानें जो परिंदा
सच्चाई के मोती वो उगल भी नहीं सकता
वो तीर मुहब्बत का मेरे दिल पे लगा है
होता जो नहीं पार निकल भी नहीं सकता
क़ैदी है 'शकील' आज भी अहेसासे बग़ावत
बाहर किसी कमरे से निकल भी नहीं सकता
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