Friday, 1 September 2017

ગઝલ

घर से हम निकले थे मस्जिद की तरफ़ जाने को
रिंद बहका के हमें ले गये मैख़ाने को

(रिंद = शराबी, मनमौजी, स्वच्छंद, मस्त)

ये ज़बाँ चलती है नासेह के छुरी चलती है
ज़िबह करने मुझे आया है के समझाने को

(नासेह = धर्मोपदेशक, नसीहत या उपदेश देने वाला), (ज़िबह = वध करना)

आज कुछ और भी पी लूँ के सुना है मैंने
आते हैं हज़रत-ए-वाइज़ मेरे समझाने को

(वाइज़ = अच्छी बातों की नसीहत या शिक्षा देने वाला)

हट गई आरिज़-ए-रौशन से तुम्हारे जो नक़ाब
रात भर शम्मा से नफ़रत रही दीवाने को

(आरिज़ = कपोल, गाल)

-अमीर मीनाई

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