४५ से ५० की उम्र एक नारी के लिये बहुत ही कश्मकश भरी होती है। इस उम्र के दौरान वो अपने मासिक धर्म से भी निवृत्त होने लगती हैं और उम्र के एक नए पड़ाव, जहाँ ना जवानी और ना बुढापा; ऐसे दौर से जब गुझरती है तो एक बार फिर वही जवानी जीने लिए उनके मन मे इच्छाएँ जन्म लेती है। ऐसी एक नारी की कश्मकश एक कविता द्वारा प्रस्तुत है।
*।।छंद : मनहर।।*
कल्पना के रंग ऐसे मन में तुरंग जैसे,
अनुभव होवे अंग जैसन लाचार वै,
उमर के द्वार खड़ी मन उलझाई बड़ी,
ऐसी सोच में पड़ी की जीवन हो भार वै,
डाल डाल उड़कर बंधन को तोड़कर,
आकाश को ओढ़कर खुशियां अपार वै,
झिन्दगी के दिन खूटे दामन यौवन छूटे,
उड़ने को पंख फूटे ऐसी एक नार वै ।।१।।
मधुमालती सुगंध बाँधे श्रृंगार से बंध,
रोम रोम गंध लगे कामण प्रसार वै,
पल्लू तन्न ज्यों सरके संवेदन त्यों थरके,
केशु ऐसे फरके की आई हो बहार वै,
सूखी नदी की मछली फीर तैरने मचली,
इच्छाएँ है मनचली ढूंढती आसार वै,
झिन्दगी के दिन खूटे दामन यौवन छूटे,
उड़ने को पंख फूटे ऐसी एक नार वै ।।२।।
*- भाविन देसाई 'अकल्पित'*
Thursday, 22 March 2018
અછાંદસ
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તુષાર શુકલ
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