भूल !
भूल भी थी कैसी फूल सी कोमल,
सो न सकी रातभर , तड़पी प्राण सी।
पलकों की छाया में ,सोई है कहानी ,
दर्द की उलझन ,हो शके आसान सी।
जल नहीं जाता तो क्या करता मैं ?
आग भी लग रही थी ,तेरी जबान सी।
आँख अंजानी में, पहचाना था पानी,
लग रही थी वह , अर्जुन के बाण सी।
मेरा कुछ नहीं लेके, सब कुछ ले लिया,
आज लहरें उछलें ,समंदर के तूफान सी।
आँसू न बहाओ , मेरी कब्र पर दीवानो,
हरी घास फूटी है,आज मेरे अरमान की।
हार नहीं मानी ,जिंदगी से लड़ता रहा,
मेरी जीवन यात्रा ,कर्म के अभियान सी।
***
-कृष्णकांत भाटिया 'कान्त '
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