Tuesday, 29 November 2016

ગઝલ

आपणी वच्चे विकसती जाय छे संवेदना
तुं कहे छे के हवे रण विस्तरी शकतुं नथी

आंख केवल आंख,दृश्योने प्रतिबिंबित करे।
आंखनुं ऊंडाण  कोई  चितरी  शकतुं  नथी

शब्दरुपे कोई नाजुक क्षणमां विस्तारे मने
ते छतां अवकाशमां अर्थो भरी शकतुं नथी

सढ बधां साबूत अने दरियो य तोफानी नथी
हुं अटूलुं  व्हाण जे  जलमां तरी शकतुं नथी
           भरत भट्ट

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