गझ़ल
हुं वृक्ष होत तोय घणो ऐम स्थिर होत
दोरी शकायो होत तो हुं पण लकीर होत
मारी पीडा विशेनी समज जो लगीर होत
हुं पण बधुं य छोडी दईने फकीर होत
मारामां होत कैंक ऐ अवधूत -जोगीओ
गिरनारनी गुफाओ के हुं पोते गीर होत
पथ्थर-पहाड तोडीने वहेवुं मने गमत
झरणां जेम मारी भीतर स्हेज नीर होत
चादरनी जेम हुं य वणातो रहेत तो
मारुं नसीब क्यां छे हवे हुं कबीर होत
. भरत भट्ट
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