Tuesday, 28 February 2017

ગઝલ

गझ़ल

हुं  वृक्ष होत तोय  घणो  ऐम  स्थिर  होत
दोरी शकायो होत तो हुं पण लकीर होत

मारी पीडा विशेनी समज जो लगीर होत
हुं पण बधुं य  छोडी  दईने  फकीर  होत

मारामां होत कैंक ऐ  अवधूत -जोगीओ
गिरनारनी गुफाओ के हुं पोते गीर होत

पथ्थर-पहाड तोडीने  वहेवुं  मने  गमत
झरणां जेम मारी भीतर स्हेज नीर होत

चादरनी  जेम हुं य  वणातो रहेत तो
मारुं नसीब क्यां छे हवे हुं कबीर होत

.                 भरत भट्ट

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