Sunday, 3 June 2018

ગઝલ

मैं

दुनियाँ   की   रस्मों  राह   निभाता  रहा  हूँ  मैं ,
ख़ुदको    सारे   जहाँ    में  लुटाता    रहा  हूँ  मैं। 

हँसना  किसीके  साथ तो रोना  किसीके  साथ ,
लिख  लिख  के  रेत   पर , मिटाता   रहा हु मैं।

अक्सर   समझता    था     जिन्हें     अजनबी,
उन्हीं  को   आज   राजदां,  बनाता  रहा  हूँ मैं। 

चले  गए  सब   अपने   उजाले   समेट     कर ,
अँधेरों  से  आज  भी  रिश्ते निभाता रहा हूँ मैं ,

मेरी   क़ीमत  लगी    नहीं   कभी   बाजार  में,
नीलाम होने से  हौसले   को बचाता रहा हूँ मैं।

चंद   आंसुओं  की   बरसात से दरिया   उभरे,
सारे  अरमानों को पानी  में बहाता रहा हूँ मैं।

आसमानी  सितारों  को जानता हूँ बचपन से,
झोंपड़ी  में  दिये  को   टिमटिमाता रहा हूँ मैं।
                           ***
-कृष्णकांत भाटिया 'कान्त '

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