Thursday, 29 December 2016

ગઝલ

कोई मारे मन अहीं अंगत नथी
आंगली चींधाय ऐ संगत नथी

मारुं आसन मे लगाव्युं छे अलग
वारसागत कोई पण पंगत नथी
    
मांगुं तो हुं फक्त बस मांगुं तने
कोई मारे मन बीजी मन्नत नथी
    
हाथ फेलावी सदा ऊभो रहीश
आव कोई पल तने मुद्दत नथी
       
घट्ट छे घटमां ऐ मारा ए रीते
के प्रवाही पण हजी अवगत नथी
       --- धर्मेश उनागर

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